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कविता

जी रहे बाबा

अनूप अशेष


पाँव में एक नदी बाँधे
गरम पानी की,
चार पुश्तों की
कहानी
जी रहे बाबा।

खाट हैं खुद
और बेटे धूप लँगड़ी,
सुबह अंधी
नातियों की
पंतियों की फटी पगड़ी
ओंठों पर एक परी लेटी
मेरी नानी की,
सर का छप्पर
और छानी
भी रहे बाबा।

दिन रहे बीमार
घर के गाँव के टूटे,
पंचों के रिश्ते
सहे, कोटों कचहरी
पीढ़ियों के कौर छूटे
झड़े पंखों वाली चिड़िया
बूढ़ी रानी की,
दाल में
वर्षों पुराना
घी रहे बाबा।
 


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